बुधवार, 10 सितंबर 2008

एक ख्याल

ईंट पर ईंट कोई रखता नहीं
साया ए दीवार का हर किसी को इंतजार है।

दो कदम कोई आगे बढ़ता नहीं
मंजिल तक पहुंचने को हर कोई बेकरार है।

इश्क की आग में कोई जलता नहीं
मंजिल ए मोहब्बत के सब दावेदार हैं।

सच से वास्ता कभी रखा नहीं।
सच्चाई के वो पहरेदार हैं।

किसी गिरते हुए को कभी उठाया नहीं
खुदा के ये खिदमतगार हैं।

बाज़ आओ राज

मराठियों के नए मठाधीश राज ठाकरे राजनीति के शिखर पर पहुंचने की हड़बड़ी में अपना आपा खो बैठे हैं। मराठियों को देने के नाम पर राज ठाकरे के पास कोई ठोस विचार नहीं है। ले देकर उनके पास एक ही मुद्दा बचा है और वो है मराठी भाषा का। ये मुद्दा भी उनका मौलिक नहीं बल्कि अपने चाचा बाल ठाकरे से उधार लिया हुआ है। चाचा के चालीस साल पुराने उसी मुद्दे को धों पोंछकर राज ठाकरे अपनी राजनीति चमकाने में जुटे हैं। पहले अमिताभ बच्चन के खिलाफ टिप्पणियां की। मीडिया के एक खास वर्ग के सामने घटिया मिमिक्री कर सस्ती वाहवाही बटोरी। पूरे राज्य को भाषावाद और प्रदेशवाद की आग में झोंक दिया। हिंसा की ये आग ठंडी होने लगी तो राज ठाकरे को डर सताने लगा। अगर ये आग बुझ गई तो कैसे चलेगी उनकी राजनीति। आग को भड़काने के लिए वो बहाना तलाश रहे थे। मौका दिया जया बच्चन की एक टिप्पणी ने। फिल्म द्रौण की रिलीज के मौके पर जया ने मजाकिया लहजे में सिर्फ इतना कहा था कि वो हिंदी में बात करेंगी –क्योंकि फिल्म हिंदी में है। साथ ही जया ने महज इतना जोड़ दिया कि वो यूपीवाली हैं। बस, राज ठाकरे को अपनी ठंडी होती राजनीति को गरमाने का मौका मिल गया। राज ने जया जैसी वरिष्ठ अभिनेत्री के बारे में जिस तरह के अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल किया वो उनके चरित्र को बताने के लिए काफी है।

भाषा अपने आप में ना कोई बुरी होती है और ना किसी से कमतर। वो अपनी बात कहने , समझाने का जरिया होती है। जिस भाषा को लेकर जो जितना कम्फर्टेबल महसूस करता है , उसे उसमें बातचीत की छूट होनी चाहिए। जया बच्चन ने राष्ट्रभाषा में बोलकर कोई गुनाह नहीं किया। अगर राज की निगाह में मुंबई और महाराष्ट्र में रहनेवालों को सिर्फ और सिर्फ मराठी बोलनी और पढ़नी है तो सबसे पहले इस नियम को खुद अपने ऊपर लागू करें। क्या राज ठाकरे ऐसा कर सकते हैं। क्या उन्होंने मराठी की जगह इंग्लिश मीडियम में पढ़ाई नहीं की। मराठी की वकालत करनेवाले राज ठाकरे के बेटे मराठी की बजाय जर्मनी में क्यों पढ़ रहे हैं। क्या राज ठाकरे नाना पाटेकर, महेश मांजरेकर और उन तमाम मराठी अभिनेताओं और फिल्मकारों से ये कहने की हिम्मत कर सकते हैं कि वो हिंदी फिल्मों में काम ना करें। क्या वो शिवराज पाटील, शरद पवार और उन मराठा नेताओं से ये कह सकते हैं कि वो हिंदी की बजाय मराठी में बोलें। क्या वो मराठी भाषियों से ये कहने की हिम्मत कर सकते हैं कि वो उत्तर भारतीयों , गुजरातियों और राजस्थानियों की कंपनियों, दुकानों में काम ना करें।

दरअसल राज ठाकरे की पूरी राजनीति मौकापरस्ती की है। वो वही कर रहे हैं जो कभी हिंदी के नाम पर कुछ नेताओं ने किया था। लोगों को हिंदी पढ़ने लिखने की नसीहत देखर उनको अंग्रेजी से महरूम किया ताकि हिंदीवाले ऊंचे पदों पर ना पहुंच सके। अफसर बनकर राज करने ना लग जाएं। लेकिन हिंदीभाषियों ने वक्स के साथ इन बातों को समझा और अंग्रेजी पर अपना प्रभुत्व हासिल कर वो सत्ता तक पहुंचे। राज ठाकरे भी मराठी के भावुक मुद्दे पर लोगों को बरगला रहे हैं। ताकि मराठी भाषी राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय भाषाओं को दरकिनार कर क्षेत्रीयता के कुएं में मेंढक बनकर जिंदगी भर टर्राते रहें।