गुरुवार, 2 अक्तूबर 2008

मीडियाकर्मियों ने लिया जनसरोकार और समस्याओं के प्रति संवेदनशीलता का संकल्प

माउंट आबू में ब्रह्माकुमारी विश्वविद्यालय के शांतिवन में 21 सितंबर से 23 सितंबर तक हुए मीडिया महासम्मेलन में भारत और नेपाल के विभिन्न भागों से आए लगभग डेढ़ हजार मीडियाकर्मियों, शिक्षाविद और मीडिया मालिकों ने शिरकत की। सम्मेलन के अंत में पारिस घोषणा पत्र में सभी मीडियाकर्मी इस संकल्प के साथ अपने गंतव्य स्थानों के लिए रवाना हुए कि वे मीडिया कवरेज में विकास संबंधी मुद्दों, जन सरोकारों और समस्याओं को अधिक स्थान देने के साथ अर्थहीन और छिछोरे मुद्दों जैसे फैशन, ग्लैमर, चमक दमक और गप्पबाजी की यथासंभव उपेक्षा करेंगे। मीडियाकर्म को सामाजिक , आर्थिक, आध्यात्मिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और सूचनापरक मुद्दों पर केंद्रित करेंगे। वे दबे कुचले एवं उपेक्षित लोगों तथा ग्रामीण और शहरी समाज के अभावग्रस्त वर्ग के उत्थान के लिए सरकारी और गैरसरकारी प्रयासों को ईमानदारी से समर्थन देंगे।

ब्रह्माकुमारी संस्था के राजयोग शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान के मीडिया प्रभाग द्वारा शांतिवन में मीडियाकर्मियों का चार दिवसीय राष्ट्रीय महासम्मेलन यह प्रस्ताव एवं कार्ययोजना स्वीकार करते हुए समाप्त हुआ कि मीडियाकर्मी, वाणिज्यिक हित और समाज हित के बीच सही संतुलन बनाए रखने का निष्ठापूर्वक प्रयास करेंगे। सर्वांगीण एवं निरंतर विकास को सुनिश्चित करने के लिए तथा सांस्कृतिक प्रदूषण पर अंकुश पाने के लिए वर्तमान सोच को नई दिशा देते हुए आध्यात्मिक मूल्यों पर ध्यान केंद्रित करेंगे। इसके लिए भारत के पुरातन ज्ञान , संस्कृति, सभ्यता, सामाजिकता और जीवन के सकारात्मक दृष्टिकोण को अपनाया जाएगा। जिसका आधार अध्यात्म, राजयोग एवं सरल जीवनशैली द्वारा आध्यात्मिक सशक्तिकरण में निहित है।

छह संयुक्त सत्रों , समूह संवाद और आध्यात्मिक आत्मावलोकन पर आधारित महासम्मेलन में भाग लेनेवाले मीडियाकर्मियों ने विश्वास दिलाया कि वे अपने सामाजिक उत्तरदायित्व के निर्वहन में स्वयं की नैतिकत और विश्वसनीयता का परिचय देंगे। समाज में शांति, स्नेह, सौहार्द्र, सच्चाई, अहिंसा, पारदर्शिता, एकता, अखंडता, सुख व संतोष से परिपूर्ण संस्कृति और वातावरण का विस्तार करने के लिए आध्यात्मिक प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में प्रयासरत रहेंगेष मीडिया विशेषकर इलेक्ट्रानिक और सायबर मीडिया में अश्लीलता, नग्नता, हिंसा और अनैतिक विषय वस्तु के प्रदर्शन एवं प्रसार में मीडिया के दुरुपयोग को नियंत्रित करने के लिए मीडिया परिषद के गठन का प्रयास किया जाएगा जो प्रेस परिषद की तुलना में अधिक शक्तिशाली, नियंत्रात्मक एवं अधिकार संपन्न होगी। यह संकल्प भी लिया गया कि मूल्यानुगत मीडिया अभिक्रम समिति, ग्लोबल फोरम फार पब्लिक रिलेशंस जैसे संगठनों को भरपूर समर्थन दिया जाएगा ताकि विचारों के आदान प्रदान और आध्यात्मिक मूल्यों को प्रोत्साहित किया जा सके।

समापन सत्र में जवाहरलाल नेहरू तकनीकी विश्वविद्यालय , हैदराबाद के प्रो. वी एम प्रसाद ने कहा कि अध्यात्म की शक्ति विश्व भर में केवल भारत के पास ही है किसी भी संस्था की उन्नति उससे जुड़े लोगों पर निर्भर करती है कि वे कितने समर्पित, अहंकार व लोभ रहित भाव से कार्य कर रहे हैं। मीडिया प्रभाग के अध्यक्ष ब्रह्मकुमार ओम प्रकाश ने कहा कि महासम्मेलन में भाग लेनेवाले मीडियाकर्मियों ने स्वयं अनुभव किया है कि ऐसी आचार संहिता तैयार की जाए जिससे समाज के अभिन्न अंग मीडिया में हो रहे पतन को रोका जा सके। आंध्र प्रदेश के पूर्व सूचना निदेशक डा. सी वी. नरसिम्हा रेड्डी, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय के प्रो. के. सी. मौली व मीडिया प्रभाग के दिल्ली स्थित राष्ट्रीय समन्वयक ब्रह्मकुमार सुशान्त ने भी कार्य योजना पर अपने विचार प्रस्तुत किए
मीडिया महसम्मेलन में शिरकत करने आए मीडियाकर्मी और ब्रह्माकुमारी संस्था से जुड़े लोग।

पिछले दिनों माउंट आबू में ब्रह्माकुमारी विश्वविद्यालय की तरफ से शांतिवन में मीडिया का महासम्मेलन हुआ। सम्मेलन में देश विदेश से आए 1500 से ज्यादा मीडियाकर्मियों ने हिस्सा लिया। सम्मेलन में कई चर्चा सत्र हुए जिनमें सामाजिक सरोकारों के प्रति मीडिया की घटती प्रतिबद्धता और संवेदनहीनता पर चिंता जताई गई। पेश है एक चर्चा सत्र की तस्वीर।

बुधवार, 10 सितंबर 2008

एक ख्याल

ईंट पर ईंट कोई रखता नहीं
साया ए दीवार का हर किसी को इंतजार है।

दो कदम कोई आगे बढ़ता नहीं
मंजिल तक पहुंचने को हर कोई बेकरार है।

इश्क की आग में कोई जलता नहीं
मंजिल ए मोहब्बत के सब दावेदार हैं।

सच से वास्ता कभी रखा नहीं।
सच्चाई के वो पहरेदार हैं।

किसी गिरते हुए को कभी उठाया नहीं
खुदा के ये खिदमतगार हैं।

बाज़ आओ राज

मराठियों के नए मठाधीश राज ठाकरे राजनीति के शिखर पर पहुंचने की हड़बड़ी में अपना आपा खो बैठे हैं। मराठियों को देने के नाम पर राज ठाकरे के पास कोई ठोस विचार नहीं है। ले देकर उनके पास एक ही मुद्दा बचा है और वो है मराठी भाषा का। ये मुद्दा भी उनका मौलिक नहीं बल्कि अपने चाचा बाल ठाकरे से उधार लिया हुआ है। चाचा के चालीस साल पुराने उसी मुद्दे को धों पोंछकर राज ठाकरे अपनी राजनीति चमकाने में जुटे हैं। पहले अमिताभ बच्चन के खिलाफ टिप्पणियां की। मीडिया के एक खास वर्ग के सामने घटिया मिमिक्री कर सस्ती वाहवाही बटोरी। पूरे राज्य को भाषावाद और प्रदेशवाद की आग में झोंक दिया। हिंसा की ये आग ठंडी होने लगी तो राज ठाकरे को डर सताने लगा। अगर ये आग बुझ गई तो कैसे चलेगी उनकी राजनीति। आग को भड़काने के लिए वो बहाना तलाश रहे थे। मौका दिया जया बच्चन की एक टिप्पणी ने। फिल्म द्रौण की रिलीज के मौके पर जया ने मजाकिया लहजे में सिर्फ इतना कहा था कि वो हिंदी में बात करेंगी –क्योंकि फिल्म हिंदी में है। साथ ही जया ने महज इतना जोड़ दिया कि वो यूपीवाली हैं। बस, राज ठाकरे को अपनी ठंडी होती राजनीति को गरमाने का मौका मिल गया। राज ने जया जैसी वरिष्ठ अभिनेत्री के बारे में जिस तरह के अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल किया वो उनके चरित्र को बताने के लिए काफी है।

भाषा अपने आप में ना कोई बुरी होती है और ना किसी से कमतर। वो अपनी बात कहने , समझाने का जरिया होती है। जिस भाषा को लेकर जो जितना कम्फर्टेबल महसूस करता है , उसे उसमें बातचीत की छूट होनी चाहिए। जया बच्चन ने राष्ट्रभाषा में बोलकर कोई गुनाह नहीं किया। अगर राज की निगाह में मुंबई और महाराष्ट्र में रहनेवालों को सिर्फ और सिर्फ मराठी बोलनी और पढ़नी है तो सबसे पहले इस नियम को खुद अपने ऊपर लागू करें। क्या राज ठाकरे ऐसा कर सकते हैं। क्या उन्होंने मराठी की जगह इंग्लिश मीडियम में पढ़ाई नहीं की। मराठी की वकालत करनेवाले राज ठाकरे के बेटे मराठी की बजाय जर्मनी में क्यों पढ़ रहे हैं। क्या राज ठाकरे नाना पाटेकर, महेश मांजरेकर और उन तमाम मराठी अभिनेताओं और फिल्मकारों से ये कहने की हिम्मत कर सकते हैं कि वो हिंदी फिल्मों में काम ना करें। क्या वो शिवराज पाटील, शरद पवार और उन मराठा नेताओं से ये कह सकते हैं कि वो हिंदी की बजाय मराठी में बोलें। क्या वो मराठी भाषियों से ये कहने की हिम्मत कर सकते हैं कि वो उत्तर भारतीयों , गुजरातियों और राजस्थानियों की कंपनियों, दुकानों में काम ना करें।

दरअसल राज ठाकरे की पूरी राजनीति मौकापरस्ती की है। वो वही कर रहे हैं जो कभी हिंदी के नाम पर कुछ नेताओं ने किया था। लोगों को हिंदी पढ़ने लिखने की नसीहत देखर उनको अंग्रेजी से महरूम किया ताकि हिंदीवाले ऊंचे पदों पर ना पहुंच सके। अफसर बनकर राज करने ना लग जाएं। लेकिन हिंदीभाषियों ने वक्स के साथ इन बातों को समझा और अंग्रेजी पर अपना प्रभुत्व हासिल कर वो सत्ता तक पहुंचे। राज ठाकरे भी मराठी के भावुक मुद्दे पर लोगों को बरगला रहे हैं। ताकि मराठी भाषी राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय भाषाओं को दरकिनार कर क्षेत्रीयता के कुएं में मेंढक बनकर जिंदगी भर टर्राते रहें।

सोमवार, 14 जुलाई 2008

कैसी आशा.. किसकी आशा?

आशा पाटील आ रही है... वो इतने बजकर इतनी मिनट पर वाघा बार्डर पार कर वतन पहुंच रही है.. अपने वतन! उसके चेहरे के हाव भाव .. उसका सामान.. उसके कपड़ों और तमाम छोटी छोटी बातों को न्यूज चैनलों पर इस तरह दिखाया गया ...गोया आशा पाटील ना हुई किसी संप्रभु राष्ट्र की राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री हो गई जो भारत के साथ महत्वपूर्ण वार्ता के लिए आ रही हो। वैसे तो मीडिया ने आशा पाटील के बारे में इतना कुछ बता दिया है कि उसका परिचय देने की जरूरत नहीं होनी चाहिए.. लेकिन अगर आपको नहीं मालूम तो बता दें कि आशा पाटील मुंबई के पास मीरा रोड में रहती थी । इंटरनेट पर चैटिंग करते करते उसे पाकिस्तानी युवक खालिद से प्यार हो गया। साल 2006 में वह शादी करके पाकिस्तान चली गई। सबकुछ ठीकठाक था लेकिन एक महीने पहले उसके पति की मौत हो गई। कुछ दिन बाद ही उसने अपने ससुरालवालों पर आरोप लगाने शुरू कर दिए कि वे उस पर जुल्म ढा रहे हैं। मदद के लिए भारतीय दूतावास की शरण में गई। मामला सुर्खियों में आया तो पाकिस्तान सरकार ने भी सक्रियता दिखाई और उसके ससुरालवालों के खिलाफ मामले दर्ज हुए। इसमें कुछ भी खास नहीं है । सिवाय इसके कि उसने पाकिस्तानी युवक से शादी की और वहां चली गई। सबकुछ उसका निजी था। कई भारतीय लड़कियां शादी दूसरे देशों के लड़कों से शादी करके वहां बसी हैं और कुछ को वहां धोखा या जुल्म का सामना भी करना पड़ा है। सवाल ये है कि आशा पाटील के मामले में ऐसी क्या खास बात थी जो मीडिया ने इसको इतना तूल दिया। क्या इसलिए की वो हमारे ऐसे पड़ोसी देश की बहू बन गई जिसके साथ हमारे संबंध कभी गरम कभी नरम रहते हैं या फिर उसने मजहब और सरहद की दीवार लांघी इसलिए। लेकिन ऐसा तो पहले भी कई बार हुआ है। और सौ बातों की एक बात आशा पाटील ने जो किया अपनी मर्जी से किया.. वो प्यार.. शादी और पाकिस्तान बसने का उसका निजी फैसला था.. इसमें ऐसा कौन सा उसने महान काम किया जो उसकी स्वागत ऐसे हुए जैसे जंग फतह करके आए सिपाहियों का होता है। कई रिपोर्टरों ने अपने लाइव में कहा कि भारत की बेटी बहुत बड़ा काम करके आ रही है । मैं पूछना चाहता हूं कि ऐसा कौन सा बड़ा काम कर दिया जो उसकी छोटी से छोटी बात हैडलाइन बन गई। देश या समाज के लिए उसका क्या इतना बड़ा योगदान है। इतना सम्मान तो क्रिकेट को छोड़कर दूसरे खेलों के हमारे चैंपियनों को भी नहीं मिलता। सरहद पर तैनात सिपाहियों को भी नहीं मिलता। लेकिन न्यूज चैनलों ने उसकी अगवानी ऐसे की जैसे उसका योगदान कल्पना चावला, सुनीता विलियम्स या पीटी ऊषा से ज्यादा हो।
मजे की बात तो ये कि आशा पाटील ने यहां पहुंचकर बयान दिया कि उसे तीन पावरफुल भारतीय पाटील से कोई मदद नहीं मिली। उसका इशारा भारत की राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील, केंद्रीय गृहमंत्री शिवराज पाटील और महाराष्ट्र के गृहमंत्री आर आर पाटील की तरफ था। उसका कहना है कि पाकिस्तान सरकार ने उसकी ज्यादा मदद की। आशा पाटील शायद भारतीय दूतावस के सहयोग को भूल चुकी है। विदेश में मुसीबत के मारे दूसरे भारतीयों की मदद दूतावास ही करता है और उसे जो मदद करनी चाहिए थी वो की गई। आशा पाटील आखिर क्यों उम्मीद कर रही थी कि उसके लिए भारत की राष्ट्रपति और गृहमंत्री प्रोटोकोल ताक पर रखकर कार्यवाही करें। भारत या समाज के लिए उसने ऐसा क्या कर दिया है कि वो खुद को उस स्पेशल ट्रीटमेंट की हकदार मानती है। आशा के उस बयान से उन न्यूज चैनलों को निराशा हुई होगी जो आशा को किसी हीरो..सॉरी महान बहादूर भारतीय बेटी की तरह पेश कर अपनी टीआरपी बढ़ाने की फिराक में थे। जो आशा के साथ हुए जुल्म को किसी भारतीय बेटी के साथ पाकिस्तान के जुल्म की तरह मसालेदार अंदाज में पेश करने की योजना बना रहे थे। लेकिन आशा ने साफ कह दिया कि वो भारत में अपने बच्चे को जन्म देकर दुबारा अपनी ससुराल लौट जाएंगी। जाहिर है आशा के इस बयान से कईयों को निराशा हुई होगी। इसीलिए तो कैसी आशा.. किसकी आशा..

बुधवार, 2 जुलाई 2008

क़रार को लेकर बेक़रार कांग्रेस

परमाणु करार को लेकर कांग्रेस बेकरार है । लेकिन वाम मोर्चा तकरार पर उतारु है। उसने साफ साफ धमकी दे रखी है कि भैया अमेरीका से करार किया तो हम आपका करार यानी चैन छीन लेंगे। कांग्रेस ने भी दो टूक कह दिया है कि अब चाहे सिर फूटे या माथा.. सरकार जाए या रहे .. हम तो अमेरीका से करार कर के ही रहेंगे। लेफ्ट की लाल झंडी के जवाब में कांग्रेस ने मायावती को पटाने की भी कोशिश की लेकिन बहनजी ने टका सा जवाब दे दिया। अब कांग्रेस साइकिल के सहारे करार की मंजिल तक पहुंचने का ख्वाब देख रही है। चारा डाल दिया गया है और समाजवादी पार्टी के महासचिव अमर सिंह के बदले बदले सुर देखकर लग रहा है कि मछली जाल में फंस गई है। अब ये मछली कांग्रेस की झोली में गिरती है या जाल तोड़कर चंपत हो जाती है .. इसका जवाब तो आनेवाला वक्त ही बताएगा लेकिन फिलहाल सियासी बिसात पर हर कोई अपनी अपनी गोटियां चलने में व्यस्त है। जनता महंगाई की मार से कराह रही है और पार्टियां सियासी खेल में मस्त है। न किसी को देश हित की पड़ी है और न ही जनता की । किसी ने परमाणु करार को अपनी प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया है तो कोई विरोध के लिए विरोध कर रहा है। हर कोई इसके जरिए चुनावी वैतरणी पार करने के सपने देख रहा है। अब इसमें किसे करार मिलता है और किसका करार छिनता है ये कहना मुहाल है।

रविवार, 29 जून 2008

आरुषि के हत्यारे

आरुषि का हर रोज कत्ल हो रहा है। कातिल ने तो आरुषि को एक बार मारा था लेकिन कुछ न्यूज चैनल और उसके कथित खोजी पत्रकार हर रोज आरुषि की हत्या कर रहे हैं। देश को जागरुक करने का ठेका लेनेवाले ये चैनल आरुषि की खबर जिस तरह बेच रहे हैं वो वीभत्स और शर्मनाक है। कोई टी शर्ट पर लगे खून के धब्बे दिखाकर कातिल को बेनकाब करने की कोशिश कर रहा है तो कोई कैमरे के सामने मोबाइल फोन तोड़कर सीबीआई अफसरों को भी चुनौती दे रहा है। अभी तक तो ये माना जाता था कि पत्रकार का काम खबर देना होता है। लेकिन लगता है अब इलेक्ट्रानिक मीडिया के पत्रकारों ने जांच एजेंसियों का काम संभाल लिया है। खैर , अगर ये पत्रकार शर्लाक होम्स बनना चाहते हैं तो किसी को क्या आपत्ति हो सकती है लेकिन जिस तरह आरुषि हत्याकांड को हर रोज पेश किया जाता है उससे शायद मौत के बाद भी आरुषि की आत्मा को शांति नहीं मिली होगी।
सवाल ये है कि क्या ये इस तरह की पहली हत्या है। क्या देश में कहीं हत्याएं नहीं होती है। क्या देश के सामने आरुषि मर्डर केस सबसे बड़ा मुद्दा है। क्या इसके अलावा खबरों का अकाल पड़ गया है।
दूसरे लोगों की तरह मैं भी चाहता हूं कि आरुषि के हत्यारे जल्द से जल्द पकड़े जाएं और उनको उनके गुनाह की कड़ी से कड़ी सजा मिले लेकिन आरुषि की मौत को भुनाने की ये घिनौनी कोशिश कम से कम बंद होनी चाहिए।

बुधवार, 25 जून 2008

ठाकरे ख़ुद परप्रांतीय निकले

शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ख़ुद परप्रांतीय निकले। ठाकरे परिवार ने अब तक मुंबई को बचाने का ठेका ले रखा था॥ खासकर परप्रान्तियों से । चुनाव का मौका आते ही उनकी जुबान और जहरीली हो जाती। उनको यही लगता की मुंबई की सारी परेशानियों के लिए परप्रांतीय ही जिम्मेदार है । इन परप्रान्तियों से मुंबई और मराठियों को बचाना वो अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते रहे है। लेकिन क्या वो जानते है की परप्रांतीय का मतलब क्या होता है। अब जबकि ये खुलासा हो गया है की ठाकरे परिवार तो ख़ुद परप्रांतीय है। उनके पिता प्रबोधनकर ठाकरे ने मध्य प्रदेश में पढाई की थी और दूसरे लोगो की तरह वो भी रोज़ी रोटी की तलाश में मुंबई आए थे तो ठाकरे चुप क्यो है। पुणे की महात्मा फुले यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर हरी नरके के इस खुलासे के जवाब में कुछ बोलते क्यो नही। कभी दक्षिण भारतीयों को तो कभी गुजरातियों को , कभी उत्तर भारतीयों को तो कभी किसी को हर किसी पर आग उगलनेवाले ठाकरे अपने परप्रांतीय होने पर खामोश क्यो है। क्या उनका परप्रांतीय होना जायज़ है और दूसरो का इतना बड़ा गुनाह की उनकी सरेआम लात घूंसों से पिटाई की जाए । उनकी रोज़ी रोटी के ज़रिये को ख़त्म किया जाए और उनको सौ बीमारी कहकर अपमानित किया जाए। ठाकरे साब क्या आप बताएँगे की जो काम आपके पिताश्री ने किया वो ठीक था। उनका रोज़ी रोटी की तलाश में मुंबई आना जायज़ था तो फ़िर एक गरीब बिहारी या उत्तरभारतीय के अपने परिवार का पेट पालने के लिए मुंबई आना क्या ग़लत है। आख़िर उसने ऐसा क्या गुनाह कर दिया है जो आपन के बहादुर सैनिक उनको अपना दुश्मन मानते और सजा भी ख़ुद तय करते है। और सौ बातो की एक बात की आपको और आपके सैनिको को ये हक़ दिया किसने। क्या एक परप्रांतीय को ये अधिकार है की वो खुदको असली मुम्बैकर बताकर दुसरे परप्रांतीय को गालिया दे और उसके साथ मारे पीट करे। और जनाब ठाकरे साब अगर आपने इतिहास पढ़ा हो तो आपको पता होगा की आर्य भी बाहर से ही आए थे। यही नही तब ये तय कर पाना बेहद मुश्किल हो जायेगा की कौन यहाँ का है और कौन बाहर का। जनाब जिनके अपने घर शीशे के बने हो वो दूसरो के घरो पर पत्थर नही फेकते ।

बुधवार, 11 जून 2008

आइये बारिशों का मौसम है.

कभी बरसात का मौसम बड़ा रंगीन लगता था। रात के सन्नाटे में बिस्तर पर लेटे रिमझिम फुहारों का संगीत दिल में गुदगुदी पैदा कर देता था। मन मयूर नाचने लगता था । एक अकेले छतरी तले आधे आधे भीगने और गर्म मसालेदार भुट्टे मे जो अलौकिक आनंद मिलता उसे शब्दों मे बयां करना मुश्किल है। कल्पना करके ही मन का पपीहा पीहू पीहू करने लगता है। लेकिन मुम्बई में दो दशक से भी ज्यादा गुजारने के बाद अब तो सिर्फ़ यादें ही बची है। मुम्बई की आपाधापी और रोजी रोटी की जद्दोजहद में बारिश का संगीत ना जाने कहाँ खो गया है। बारिश आती है तो लगता है मुसीबतों की बरसात लेकर आई है। सड़के नालों में तब्दील हो जाती है। रास्तों पर ट्रैफिक जाम हो जाता है। मुम्बई की धड़कन कही जानेवाली लोकल ट्रेनों की रफ़्तार पर ब्रेक लग जाता है। कोई जर्जर इमारत धराशायी हो जाती है और आशियाने कब्र बन जाते है। गैस्त्रो और लेप्तो जैसी बीमारियों के शिकार मरीजों की डाक्टरों के यहाँ कतार लग जाती है। पता नही हालत बदल गए है या फ़िर मेरा नजरिया। नही जानता । आप क्या कहते है।