आरुषि का हर रोज कत्ल हो रहा है। कातिल ने तो आरुषि को एक बार मारा था लेकिन कुछ न्यूज चैनल और उसके कथित खोजी पत्रकार हर रोज आरुषि की हत्या कर रहे हैं। देश को जागरुक करने का ठेका लेनेवाले ये चैनल आरुषि की खबर जिस तरह बेच रहे हैं वो वीभत्स और शर्मनाक है। कोई टी शर्ट पर लगे खून के धब्बे दिखाकर कातिल को बेनकाब करने की कोशिश कर रहा है तो कोई कैमरे के सामने मोबाइल फोन तोड़कर सीबीआई अफसरों को भी चुनौती दे रहा है। अभी तक तो ये माना जाता था कि पत्रकार का काम खबर देना होता है। लेकिन लगता है अब इलेक्ट्रानिक मीडिया के पत्रकारों ने जांच एजेंसियों का काम संभाल लिया है। खैर , अगर ये पत्रकार शर्लाक होम्स बनना चाहते हैं तो किसी को क्या आपत्ति हो सकती है लेकिन जिस तरह आरुषि हत्याकांड को हर रोज पेश किया जाता है उससे शायद मौत के बाद भी आरुषि की आत्मा को शांति नहीं मिली होगी।
सवाल ये है कि क्या ये इस तरह की पहली हत्या है। क्या देश में कहीं हत्याएं नहीं होती है। क्या देश के सामने आरुषि मर्डर केस सबसे बड़ा मुद्दा है। क्या इसके अलावा खबरों का अकाल पड़ गया है।
दूसरे लोगों की तरह मैं भी चाहता हूं कि आरुषि के हत्यारे जल्द से जल्द पकड़े जाएं और उनको उनके गुनाह की कड़ी से कड़ी सजा मिले लेकिन आरुषि की मौत को भुनाने की ये घिनौनी कोशिश कम से कम बंद होनी चाहिए।
रविवार, 29 जून 2008
बुधवार, 25 जून 2008
ठाकरे ख़ुद परप्रांतीय निकले
शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ख़ुद परप्रांतीय निकले। ठाकरे परिवार ने अब तक मुंबई को बचाने का ठेका ले रखा था॥ खासकर परप्रान्तियों से । चुनाव का मौका आते ही उनकी जुबान और जहरीली हो जाती। उनको यही लगता की मुंबई की सारी परेशानियों के लिए परप्रांतीय ही जिम्मेदार है । इन परप्रान्तियों से मुंबई और मराठियों को बचाना वो अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते रहे है। लेकिन क्या वो जानते है की परप्रांतीय का मतलब क्या होता है। अब जबकि ये खुलासा हो गया है की ठाकरे परिवार तो ख़ुद परप्रांतीय है। उनके पिता प्रबोधनकर ठाकरे ने मध्य प्रदेश में पढाई की थी और दूसरे लोगो की तरह वो भी रोज़ी रोटी की तलाश में मुंबई आए थे तो ठाकरे चुप क्यो है। पुणे की महात्मा फुले यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर हरी नरके के इस खुलासे के जवाब में कुछ बोलते क्यो नही। कभी दक्षिण भारतीयों को तो कभी गुजरातियों को , कभी उत्तर भारतीयों को तो कभी किसी को हर किसी पर आग उगलनेवाले ठाकरे अपने परप्रांतीय होने पर खामोश क्यो है। क्या उनका परप्रांतीय होना जायज़ है और दूसरो का इतना बड़ा गुनाह की उनकी सरेआम लात घूंसों से पिटाई की जाए । उनकी रोज़ी रोटी के ज़रिये को ख़त्म किया जाए और उनको सौ बीमारी कहकर अपमानित किया जाए। ठाकरे साब क्या आप बताएँगे की जो काम आपके पिताश्री ने किया वो ठीक था। उनका रोज़ी रोटी की तलाश में मुंबई आना जायज़ था तो फ़िर एक गरीब बिहारी या उत्तरभारतीय के अपने परिवार का पेट पालने के लिए मुंबई आना क्या ग़लत है। आख़िर उसने ऐसा क्या गुनाह कर दिया है जो आपन के बहादुर सैनिक उनको अपना दुश्मन मानते और सजा भी ख़ुद तय करते है। और सौ बातो की एक बात की आपको और आपके सैनिको को ये हक़ दिया किसने। क्या एक परप्रांतीय को ये अधिकार है की वो खुदको असली मुम्बैकर बताकर दुसरे परप्रांतीय को गालिया दे और उसके साथ मारे पीट करे। और जनाब ठाकरे साब अगर आपने इतिहास पढ़ा हो तो आपको पता होगा की आर्य भी बाहर से ही आए थे। यही नही तब ये तय कर पाना बेहद मुश्किल हो जायेगा की कौन यहाँ का है और कौन बाहर का। जनाब जिनके अपने घर शीशे के बने हो वो दूसरो के घरो पर पत्थर नही फेकते ।
बुधवार, 11 जून 2008
आइये बारिशों का मौसम है.
कभी बरसात का मौसम बड़ा रंगीन लगता था। रात के सन्नाटे में बिस्तर पर लेटे रिमझिम फुहारों का संगीत दिल में गुदगुदी पैदा कर देता था। मन मयूर नाचने लगता था । एक अकेले छतरी तले आधे आधे भीगने और गर्म मसालेदार भुट्टे मे जो अलौकिक आनंद मिलता उसे शब्दों मे बयां करना मुश्किल है। कल्पना करके ही मन का पपीहा पीहू पीहू करने लगता है। लेकिन मुम्बई में दो दशक से भी ज्यादा गुजारने के बाद अब तो सिर्फ़ यादें ही बची है। मुम्बई की आपाधापी और रोजी रोटी की जद्दोजहद में बारिश का संगीत ना जाने कहाँ खो गया है। बारिश आती है तो लगता है मुसीबतों की बरसात लेकर आई है। सड़के नालों में तब्दील हो जाती है। रास्तों पर ट्रैफिक जाम हो जाता है। मुम्बई की धड़कन कही जानेवाली लोकल ट्रेनों की रफ़्तार पर ब्रेक लग जाता है। कोई जर्जर इमारत धराशायी हो जाती है और आशियाने कब्र बन जाते है। गैस्त्रो और लेप्तो जैसी बीमारियों के शिकार मरीजों की डाक्टरों के यहाँ कतार लग जाती है। पता नही हालत बदल गए है या फ़िर मेरा नजरिया। नही जानता । आप क्या कहते है।
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