बुधवार, 25 जून 2008

ठाकरे ख़ुद परप्रांतीय निकले

शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ख़ुद परप्रांतीय निकले। ठाकरे परिवार ने अब तक मुंबई को बचाने का ठेका ले रखा था॥ खासकर परप्रान्तियों से । चुनाव का मौका आते ही उनकी जुबान और जहरीली हो जाती। उनको यही लगता की मुंबई की सारी परेशानियों के लिए परप्रांतीय ही जिम्मेदार है । इन परप्रान्तियों से मुंबई और मराठियों को बचाना वो अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते रहे है। लेकिन क्या वो जानते है की परप्रांतीय का मतलब क्या होता है। अब जबकि ये खुलासा हो गया है की ठाकरे परिवार तो ख़ुद परप्रांतीय है। उनके पिता प्रबोधनकर ठाकरे ने मध्य प्रदेश में पढाई की थी और दूसरे लोगो की तरह वो भी रोज़ी रोटी की तलाश में मुंबई आए थे तो ठाकरे चुप क्यो है। पुणे की महात्मा फुले यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर हरी नरके के इस खुलासे के जवाब में कुछ बोलते क्यो नही। कभी दक्षिण भारतीयों को तो कभी गुजरातियों को , कभी उत्तर भारतीयों को तो कभी किसी को हर किसी पर आग उगलनेवाले ठाकरे अपने परप्रांतीय होने पर खामोश क्यो है। क्या उनका परप्रांतीय होना जायज़ है और दूसरो का इतना बड़ा गुनाह की उनकी सरेआम लात घूंसों से पिटाई की जाए । उनकी रोज़ी रोटी के ज़रिये को ख़त्म किया जाए और उनको सौ बीमारी कहकर अपमानित किया जाए। ठाकरे साब क्या आप बताएँगे की जो काम आपके पिताश्री ने किया वो ठीक था। उनका रोज़ी रोटी की तलाश में मुंबई आना जायज़ था तो फ़िर एक गरीब बिहारी या उत्तरभारतीय के अपने परिवार का पेट पालने के लिए मुंबई आना क्या ग़लत है। आख़िर उसने ऐसा क्या गुनाह कर दिया है जो आपन के बहादुर सैनिक उनको अपना दुश्मन मानते और सजा भी ख़ुद तय करते है। और सौ बातो की एक बात की आपको और आपके सैनिको को ये हक़ दिया किसने। क्या एक परप्रांतीय को ये अधिकार है की वो खुदको असली मुम्बैकर बताकर दुसरे परप्रांतीय को गालिया दे और उसके साथ मारे पीट करे। और जनाब ठाकरे साब अगर आपने इतिहास पढ़ा हो तो आपको पता होगा की आर्य भी बाहर से ही आए थे। यही नही तब ये तय कर पाना बेहद मुश्किल हो जायेगा की कौन यहाँ का है और कौन बाहर का। जनाब जिनके अपने घर शीशे के बने हो वो दूसरो के घरो पर पत्थर नही फेकते ।

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